पिछले कुछ दशकों में आतंकवाद और पंथिक कट्टरवाद जिस तेजी से फैला है, उससे सारे विश्व में व्यक्तिगत और सामूहिक असुरक्षा के इतने आयाम उभरे हैं कि हर देश को सुरक्षा पर अतिरिक्त और अनावश्यक बोझ उठाना पड़ रहा है। जो देश एक जाति-पंथ-भाषा-संस्कृति में रहने के आदी थे, उन्हें अब अनेक संस्कृतियों, भाषाओं, पंथों और अपेक्षाओं के जनसंख्या समूहों के साथ रहना सीखना पड़ रहा है। सारी स्थितियाँ मानव जीवन में असहजता उत्पन्न करती हैं, पारस्परिक अविश्वास को लगातार बढ़ा रही हें। अधिकांश युवाओं को अपना भविष्य असुरक्षा, अनिश्चय और निराशा से भरा दिखता हे। फ्रांस जैसे देशों में कुछ दशक पूर्व आए प्रवासी और मूल निवासियों में हिंसा अनेक अवसरों पर प्रस्फुटित होती रहती है। तनाव, आशंका और सामाजिक स्तर पर बनाई गई दूरियाँ मानव जीवन में व्यग्रता को बढ़ाती हैं। ये सभी मिलकर उग्रता और हिंसा को जन्म देते हैं। अन्यथा क्या कारण है कि लगभग हर प्रकार की विविधता की स्वीकार्यता के लिए सराहा जानेवाला भारत आज तक यह नहीं सीख पाया कि धार्मिक जुलूस बिना किसी तनाव या हिंसा के संपन्न हो सके? दूसरी तरफ पश्चिम के कितने ही विद्वानों ने यह माना है कि यदि विश्व स्तर पर भाईचारा स्थापित होना है तो उसका रास्ता भारत ही दिखा सकता है।
इस समय वैश्विक स्थिति यह है कि उत्पादन, व्यापार और बाजार के इर्द-गिर्द आर्थिक स्थिति सुधारने पर ही सभी देशों का ध्यान केंद्रित है। जीडीपी बढ़नी चाहिए, अधिक से अधिक धन संचय अब सार्वभौमिक लक्ष्य बनकर उभरा है। हिंसा और युद्ध की स्थितियों के पीछे भले ही स्थानीय कारक अधिक प्रबल दिखाई दें, बाजारवाद के योगदान को नकारना आत्मघाती सिद्ध हो रहा है। यदि शिक्षा व्यवस्थाएँ केवल “एक बड़े पैकेज’ पर ही ध्यान केंद्रित करती रहेंगी तो नैतिकता, संवेदना, सहयोग, समग्रता जैसे व्यक्तित्व विकास के परम आवश्यक तत्व केवल पुस्तकों में ही रह जाएँगे! विकास और वृद्धि के लिए एक मजबूत अर्थतंत्र आवश्यक है, लेकिन हर व्यक्ति की सर्वमूलभूत मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति के लक्ष्य को पीछे छोड़कर नहीं। वृद्धि और विकास ही प्रगति की संपूर्णता के द्योतक नहीं हो सकते हैं जब तक कि उनमें मानवीय तत्व और विशेषकर आध्यात्मिक चेतना से परिचय सम्मिलित न हो। विकास की वर्तमान अवधारणा में धनाढू्य होना या उसके लिए प्रयास करना अक्षम्य अपराध नहीं माना जाता है। बडे उत्पादक संयंत्र चाहिए, रोजगार चाहिए, लगभग हर महत्वपूर्ण क्षेत्र में निवेश चाहिए. जिसके लिए सरकारों पर आश्रित रहने के नकारात्मक परिणाम बड़े स्तर पर देखे जा चुके हैं। भारत ने अपनी उन नीतियों को 1990-91 में बदला। आज देश में खरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है, इनमें से कुछ वैश्विक सूची में शिखर या उसके करीब तक पहुँच गए। लेकिन इस स्थिति के आने के पहलू भी अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। कोरोना काल के समय प्रारंभ की गई मुफ्त राशन की व्यवस्था बहुत कुछ कहती है। इस एक उदाहरण से सभी परिचित हैं। देश में बड़े-बड़े अस्पताल बने, प्रशंसा हुई, विदेशों से लोग भारत में चिकित्सा कराने आने लगे, लेकिन इनमें से ऐसे कितने हैं जिनके संबंध में कहा जा सके कि वहाँ व्यवस्था केवल व्यापार पर आश्रित नहीं है। उस व्यक्ति की व्यथा समझिए जो उनके अंदर प्रवेश नहीं कर पाता है। ऐसे ही एक बड़े नामी-गिरामी अस्पताल में एक बार किसी को देखने जाने पर मैंने एक कम आवाजाही के स्थान पर एक सूचना पट देखा जिसमें लिखा था कि ईडब्ल्यूएस श्रेणी के लिए आवंटित बेड की संख्या चालीस और इनमें से भरे हुए की संख्या शून्य! कट्टर ईमानदारी से लिखी सूचना थी। इस प्रकार की स्थितियाँ, जो हर क्षेत्र में देखी जा सकती हैं, स्पष्ट रूप से यह दर्शाती हैं कि विकास की अवधारणा में पंक्ति के अंतिम छोर पर खड़े व्यक्ति की मूलभूत आवश्यकताओं की अनदेखी आंतरिक व्यथा को जन्म देती है, जो उग्रता से बहुत दूरी नहीं रखती है। किसी भी व्यग्र व्यक्ति या समूह का किसी भी समय उग्र हो जाना अपेक्षित प्रतिक्रिया ही मानी जानी चाहिए। हिंसा के वैश्विक स्तर पर बढ़ाव को इस निगाह से भी विश्लेषित करना होगा।