नासिरा शर्मा की कलम से...
“इब्मे मरियम’ संग्रह की सारी कहानियाँ एक विशेष स्थिति की हैं जिसमें फंसा इन्सान जीने के लिए छटपटाता हे । कभी उसका यह संघर्ष अपने अधिकार को पाने के लिए होता है तो कभी समाज को बेहतर बनाने के लिए करता है । ऐसे ही हालात की कहानी ‘ज़ैतून के साये’ हे जिसको लिखते हुए मेरे मन- मस्तिष्क में इतिहास के दरीचे खुले हुए थे। जिसमें इस ख़बर की भी गूँज थी कि फिलीस्तीनी गुरिललाओं ने अपनी तंगहाली से परेशान होकर मुर्दा इन्सानी गोश्त’ खाने के लिए फतवा माँगा है ताकि हराम” चीज़ ‘हलाल’ हो जाए ओर वे भूंखे मरने की जगह ज़िन्दा रहकर अपना जद्दोजहद जारी रख सकें ।
इस कहानी को लिखने का सच सिर्फ इतना-सा नहीं था बल्कि यहूदियों की भी अतीत की गाथा सामने थी जिन्होंने दूसरे विश्वयुद्ध में तनाव के लम्बे गलियारे पार किए थे । जर्मनों की हार के बाद अपराधियों को सज़ा देने के लिए नन्यूरेमबर्ग वार क्राइम ट्रायल्स’ नामक अदालत का गठन हुआ था। एक दिन एक कवि वहाँ “गंवाह’ के रूप में आया,जो पोलेण्ड के विलना कस्बे में यहूदियों के क़ब्रिस्तान की एक पुरानी कब्र में रहता था। उस समय “गैस चेम्बर’ से बचने के लिए यहूदी क़ब्र में शरण लेते थे। इस कवि के पड़ोस वाली क़ब्र में एक युवती ने एक बच्चे को जन्म दिया। उस कब्रिस्तान के बूढ़े चौकीदार ने प्रसूति में सहायता की और इसी घटना पर उसने “जन्म’ नामक कविता लिखी थी।
यहूदियों और फिलीस्तीनियों को जब अलग कालखंड में देखती हूं तो मुझे उनकी पीड़ा बुरी तरह झँझोड़ती है और मुझे भारत का बँटवारा और उससे उपजी त्रासदी का ध्यान आता है जो आज भी हमारा पीछा नहीं छोड़ रही है। ऊपर से पंजाब सुलग उठा । इस त्रिकोण पर मेरी कहानी ‘आमोख्ता’ है। इसका नाम “आमोख़्ता’ रखने के पीछे मेश मकसद यह है कि आख़िर एक पीढ़ी गुज़री हुई पीढ़ी के अनुभव से लाभ क्यों नहीं उठा पाती है? आख़िर उसके समय का यथार्थ उसे अपने वश में कर वही सबकुछ दोहरवाता है जो उसके पूर्वजों ने सहा था। आख़िर क्यों ?
ये सारी इन्सानी समस्याएँ मुझे कई-कई स्तर पर हान्ट करती हैें। आमोख्ता (पंजाब), जड़ें (युगांडा), ज़ेतून के साये (फिलीस्तीन), काला सूरज (इथोपिया), काग़ज़ी बादाम (अफ़गानिस्तान), तीसरा मोर्चा (कश्मीर), मोमजामा (सीरिया), मिस्टर ब्राउनी (स्कॉटलैण्ड), कशीदाकारी (बंगला देश), जुलजुता (कनाड़ा), पुल-ए-सरात (इराक़), जहांनुमा (टर्की), इब्ने मरियम (भोपाल)–इन सारी कहानियों में उस धारा को संवेदना के समन्दर से पकड़ने की कोशिश की है जो मानवीय है। वास्तव में इन्सान के अन्दर पलती जिजीविषा मुझे सृजन के स्तर पर बाँधती है और जीने की यही छटपटाहट मुझे लिखने की प्रेरणा देती है ।
मेरे सोच के सिलसिले की भावनात्मक अभिव्यक्ति के रूप में मेरी ये कहानियाँ पाठकों को बुरी नहीं लगेंगी बल्कि मेरा विश्वास है कि ये उन्हें संवेदना के धरातल पर अधिक अपनी-सी लगेंगी।
–नासिरा शर्मा