बाज़ार से हम बच नहीं सकते और जो राहें निकालीं पूर्वजों ने राहें जो मंगल भरी हैं उन अलक्षित रास्तों से हट नहीं सकते बाज़ार से भी बच नहीं सकते।
डाल पर बैठे कला का टोप पहने झूलती है डाल इस छोर से उस छोर तक साधना है संतुलन क्या है ज़रूरी? साधना या संतुलन गंतव्य तो हर राह का कोई इधर, कोई उधर है कौन सा गंतव्य किसका किस पेड़ की छाया है किसकी कौन सा पानी किधर को रुख करेगा धूप का वह कौन सा टुकड़ा किसी को क्यों मिलेगा कुछ भी न निश्चित समुद्र के अंदर है हलचल बाहर सिर्फ उठते पिरामिड प्रश्न करते और मिटते समंदर की गहरी हलचलों से कट नहीं सकते और हम बाज़ार से भी बच नहीं सकते।
अर्थहीन नहीं है सब
जब ज़मीन है और पाँव भी तो ज़ाहिर है हम खड़े भी हैं।
जब सूरज है और आँखें भी तो ज़ाहिर है प्रकाश भी है।
जब फूल है और नाक भी तो ज़ाहिर है खुशबू भी है
जब वीणा है और कान भी तो ज़ाहिर है संगीत भी है
जब तुम हो और मैं भी तो ज़ाहिर है प्रेम भी है।
जब घर है और पड़ोस भी तो ज़ाहीर है समाज भी है
जब यह भी है और वो भी यानी नल भी जल भी और और वो भी यानी नल भी जब भी और घड़ा भी तो ज़ाहिर है घड़े में जल है अर्थ की तरह आदमी है समाज में हर प्रश्न के हल की तरह।