गोविन्द मिश्र
1965 से लगातार और उत्तरोत्तर स्तरीय लेखन के लिए सुविख्यात गोविन्द मिश्र इसका श्रेय अपने खुलेपन को देते हैं । समकालीन कथा-साहित्य में उनकी उपस्थिति जो एक संपूर्ण साहित्यकार का बोध कराती है, जिसकी वरीयताओं में लेखन सर्वोपरि है, जिसकी चिंताएं समकालीन समाज से उठकर ‘पृथ्वी पर मनुष्य’ के रहने के संदर्भ तक जाती हैं और जिसका लेखन-फलक ‘लाल पीली ज़मीन’ के खुरदरे यथार्थ, ‘तुम्हारी रोशनी में’ की कोमलता और काव्यात्मकता, ‘धीरसमीरे’ की भारतीय परंपरा की खोज, ‘हुजूर दरबार’ और ‘पाँच आँगनोंवाला घर’ की इतिहास और अतीत के संदर्भ में आज के प्रश्नों की पड़ताल-इन्हें एक साथ समेटे हुए है। इनकी कहानियों में एक तरफ ‘कचकौंध’ के गंवई गांव के मास्टर साहब हैं तो ‘मायकल लोबो’ जैसा आधुनिक पात्र या ‘खाक इतिहास’ की विदेशी मारिया भी । गोविन्द मिश्र बुंदेलखंड के हैं तो बुंदेली उनका भाषायी आधार है, लेकिन वे उतनी ही आसानी से ‘धीरसमीरे’ में ब्रजभाषा और ‘पाँच आंगनोंवाला घर’ और ‘पगला बाबा’ में बनारसी-भोजपुरी से भी सरक जाते हैं । प्राप्त कई पुरस्कारों/सम्मानों में ‘पांच आंगनोंवाला घर’ के लिए 1998 का व्यास सम्मान और ‘कोहरे से कैद रंग’ के लिए 2008 का साहित्य अकादेमी पुरस्कार, 2011 में उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान का भारत भारती पुरस्कार एवं 2013 का सरस्वती सम्मान विशेष उल्लेखनीय है । इन्हें राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम द्वारा भी सम्मानित किया जा चुका है ।
प्रकाशित रचनाएँ : उपन्यास : ‘अरण्य-तंत्र’, ‘वह/अपना चेहरा’, ‘उतरती हुई धूप’, ‘लाल पीली जमीना’, ‘हुजूर दरबार’, ‘तुम्हारी रोशनी में’, ‘धीरसमीरे’, ‘पांच आँगनोंवाला घर’, ‘फूल…इमारतें और बंदर’, ‘कोहरे में कैद रंग’ , ‘धूल पौधों पर’ ।
कहानी-संग्रह : दस से अधिक । अंतिम पाँच-‘पगला बाबा’, ‘आसमान…कितना नीला’, ‘हवाबाज़’, ‘मुझे बाहर निकालो’, ‘नए सिरे से’ । संपूर्ण कहानियाँ : ‘निर्झरिणी’ (दो खंड)।
यात्रा-वृत्त : ‘धुंध-भरी सुर्खी’ ‘दरख्तों के पार…शाम’, ‘झूलती जड़ें’, ‘परतों के बीच’, ‘और यात्राएँ’ । यात्रा-वृत्त : ‘रंगों की गंध’ (दो खंड) । निबंध : ‘साहित्य का संदर्भ, ‘कथाभूमि’, ‘संवाद अनायास’, ‘समय और सर्जना’ । कविता : ‘ओ प्रकृति माँ’ । चुनी हुईं रचनाएँ (तीन खंड) ।