…..नाम, इज्जत, शोहरत, काबिलियत, रुपया, पैसा सभी कुछ मिला पर, सच्चा प्यार नहीं।…..कई बार महीनों गुजर गये हैं इस भरम में कि मैंने अपनी मंजिल पा ली।…. मिल गया मुझे जिसकी पिछली कई जिंदगियों से तलब थी….जिसे खोजती हुई भटक रही थी मेरी रूह को और मेरी निगाहों को हमेशा, हर पल…..पर वो कहते है न कि बहुत करीब से देखा जाय तो किसी चीज को, तो पूरी तरह देख नहीं पाते उसे….यही तो होता रहा है मेरे साथ भी।….मैं अपनी बेसब्री की आदत का शिकार होती जा रही हूँ।…जरा-सी कशिश महसूस करते ही मैं अपने आप पर काबू खो बैठती हूँ और बेतहाशा खिंचती चली जाती उसकी तरफ…इतनी करीब कि गैरियत और अलहदगी का अहसास ही मिट जाता…. पर जिंदगी में नजदीकियाँ होती हैं तो दूरियाँ भी बहुत दूर नहीं होतीं….मैंने जब भी किसी को अपने से अलहदा करके उसके वजूद में खुद को तलाशने की कोशिश की तो नाउम्मीदी ही हाथ लगी….सारे के सारे भरम खुलते चले गये….मेरी तो कोई जगह थी ही नहीं उसके आसपास….
-इसी पुस्तक से