अंतरंग साक्षात्कार
भवानीप्रसाद मिश्र और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना से मेरा निकट संपर्क लंबे अरसे तक रहा। इस संपर्क ने मुझे अज्ञेय जी, विजयदेवनारायण साही, जैनेन्द्र कुमार और माखनलाल चतुर्वेदी के संपर्क-संवाद
में आने का अवसर दिया। भवानीप्रसाद मिश्र के पास आदरणीय गुरुवर पंॉ कृष्ण शंकर शुक्ल ने पहुँचाया और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के पास एक विचारगोष्ठी ने। मिश्र जी के व्यक्तित्व में गांधी के विचारों की गंध रच-पच गई थी और सर्वेश्वर जी के व्यक्तित्व में राममनोहर लोहिया का समाजवादी तेज प्रदीप्त था। मेरे लिए दोनों के व्यक्तित्व-कृतित्व का एक अलग ढंग का आकर्षण था। साहित्य एवं राजनीति से जुड़े जीवित प्रश्नों को दोनों रचनाकार विचार-बहस के केंद्र में रखते थे और अपने से छोटों को ललकारकर चुप करने का तेवर कभी भी इनके पास न था। पर मिश्र जी बोलते कम थेµसुनते ज्यादा थे और सर्वेश्वर जी सुनते कम थे, बोलते ज्यादा थे। विचार-विरोध ज्यादा बढ़ जाने पर सर्वेश्वर जी से पकड़-धकड़ की नौबत भी आ सकती थी। मिश्र जी कठोर से कठोर व्यंग्य-बाणों को झेलने के सहज अभ्यासी रचनाकार थे, किंतु सर्वेश्वर जी को सोते से जगाना खतरे से खाली न था।
इसी मानसिकता के दबाव में मैंने दोनों रचना- कारों से आत्मीय संवाद किया। आप इस संवाद को इंटरव्यू, भेंटवार्ता, साक्षात्कार, अंतरंग बातचीत, अंतरव्यूह, परिप्रश्न आदि कुछ भी नाम दे सकते हैं।
किंतु इस संवाद में रचनाकार के रचना-कर्म और रचना-मर्म से अंतरंग साक्षात्कार स्थापित करने का यत्न ही अधिक रहा है। मूलतः यहाँ रचनाकार और पाठक संवाद ही प्रधान है। हमारे भीतर का नचिकेता-भाव संवाद-परंपरा की अर्थच्छवियों का आद्य-बिंब है। इस बिंब में कई तरह के अर्थ-दीपक झिलमिलाते हैं। ‘नचिकेता संवाद’, ‘भरत-आत्रोय संवाद’ आदि उदाहरण भारतीय जिज्ञासु-मन के प्रकाशलोक हैं। वस्तुतः इस परंपरा का आरंभ वेदों से ही हो जाता है, जिसमें कहा गया है कि ‘सोने के चमकीले ढक्कन से सत्य का मुख ढका हुआ है, जगत् का पोषण करने वाले हे पूषन् ! मुझ सत्य के खोजी के लिए तुम उस ढक्कन को हटा दो।’ आज भी प्रार्थना की इस भाषा और नए चिंतन की विद्रोही भाषा के बीच का संबंध-सेतु मौजूद है। सोने का चमकीला ढक्कन ! सत्य का असह्य आलोक ! रचनाकार में ही यह शक्ति है कि वह इस असह्य आलोक को झेल सकता है। उसकी वाक्-शक्ति माया का आवरण हटाने वाली शक्ति है। भवानीप्रसाद मिश्र और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना से संवाद करते हुए मैंने लगातार महसूस किया है कि इन रचनाकारों ने सोने के ढक्कन से ढके हुए पात्रा का मुख खोलने का अनवरत प्रयास किया है।
भवानीप्रसाद मिश्र के सृजन और चिंतन में जीवन की कालिदासीय लय बजती है और सर्वेश्वरदयाल सक्सेना के सृजन और चिंतन में भवभूति-परंपरा का विस्तार है। इन दोनों सूक्ष्मग्राही वेदनतंत्रा के संपन्न रचनाकारों के अंतर्मन की पीड़ाओं, चिंताओं, सामाजिक-सांस्कृतिक सरोकारों, संवेदनात्मक-ज्ञानात्मक अनुभवों, सौंदर्याभिरुचियों के वर्गीय कंसर्नों को टटोलना चुनौतीपूर्ण भी कम नहीं था। इस चुनौतीपूर्ण कार्य में मुझे कहाँ तक सफलता- असफलता मिली है, इसका निर्णय तो आप ही करेंगे।
-कृष्णदत्त पालीवाल