बीच की धूप
अथक शब्दकर्मी महीप सिंह का प्रस्तुत उपन्यास ‘बीच की धूप’ इस देश के उस दौर की कहानी कहता है जब लोकतंत्रा के मुखौटे में डरी हुई राजनीतिक सत्ता तमाम तरह के अलोकतांत्रिक दंद-फंद के सहारे स्वयं को कायम रखने की कोशिशों में क्रूर से क्रूरतर होती जा रही थी।
सभी आदर्शात्मक शब्द अपनी परिणति में मनुष्य के विरोधी ही नहीं, शत्राु सिद्ध हो रहे थे। विचारधारा और धर्म अंततः यंत्राणा और नरसंहार के कारक बन रहे थे।
इसका विरोध करने के दावे लेकर आने वाले राजनेताओं में कोई गहरी एवं व्यापक अंतर्दृष्टि और दूरदृष्टि नहीं थी।
समाज में प्रगति का अर्थ किसी भी प्रकार अधिकाधिक आर्थिक सुविधाएँ पा लेना भर बनता जा रहा था, जिसके चलते नैतिक-अनैतिक की सीमारेखा का मिटते जाना स्पष्ट लक्षित हो रहा था। सत्ता या सत्ता से निकटता की आकांक्षा संभ्रांत वर्ग को मूल्यगत विवेक से विमुख कर रही थी
तो निम्न-मध्य वर्ग को अपराध का ग्लैमर आकर्षित करने लगा था।
इस आतंककारी परिदृश्य में सतह के नीचे खदबदाती कुछ सकारात्मक परिवर्तनकामी धाराएँ अपनी राह खोजने की प्रक्रिया में अवरोधों और हिंसक प्रतिरोधों से टकरा
रही थीं। स्त्राी की अस्मिता और दलित चेतना ऐसी ही घटनाएँ थीं।
‘बीच की धूप’ में लेखक ने निकट अतीत की उन प्रवृत्तियों को अपनी कलात्मक लेखनी का स्पर्श देकर जीवंत कथा बना दिया है, जो आज की परिस्थितियों के मूल में हैं। यह ‘अभी शेष है’ से आरंभ हुई महीप सिंह की उपन्यास त्रायी का दूसरा चरण भी है और स्वतंत्रा उपन्यास भी।
वरिष्ठ लेखक का यह उपन्यास अनेक प्रश्न पाठक के समक्ष रखता है। उनके द्वारा प्रस्तुत मार्मिक, विचारोत्तेजक एवं रोचक कृतियों की शृंखला में एक नई कड़ी जोड़ता ‘बीच की धूप’ अविस्मरणीय होने की पात्राता लिए हुए है।