छोर
कुशाग्र बुद्धि अमृता ने चाची के कुचक्र की ओर कभी ध्यान ही नहीं दिया और अपनी पढ़ाई-लिखाई में ही व्यस्त रही। कुछ समय उपरांत पिता भी स्वर्गवासी हुए और तब घर-परिवार तथा व्यापार पर चाची का वर्चस्व स्थापित हो गया। अमृता की संपत्ति धीरे-धीरे और भीतर ही भीतर चाची तथा उसके बच्चों की ओर खिसकने लगी। अमृता की संपत्ति पर अपनी पकड़ मजबूत करने के लिए चाची ने अमृता को बहला-फुसलाकर उसका ब्याह अपने छोटे भाई से करा दिया।
हालात को स्वीकार करके मजबूर अमृता एक कॉलिज में अध्यापन करने लगी और अपने दो बच्चों के साथ बागान से दूर पिता की एक पुरानी कोठी में रहने लगी। वहीं उसकी मुलाकात वास्तुकार सोमशेखर से हुई जो बंबई छोड़कर मैसूर आ गया था। दोनों धीरे-धीरे एक-दूसरे की ओर आकृष्ट होने लगे। इस बीच अमृता को चाची के कुचक्रों का भी आभास होने लगा। परिस्थितियों ने उसके स्वभाव में अजीब चिड़चिड़ापन, जीवन के प्रति अरुचि, कुंठा और विकर्षण को जन्म दिया। उसे जीवन बेमानी लगने लगा किंतु बेटों के प्रति मोह और सोमशेखर के प्रति अस्पष्ट आकर्षण उसे बार-बार आत्महत्या की कगार से लौटा लाता। अमृता की जिंदगी में जीवन और मृत्यु की ऊहापोह, उसकी कुंठा ही उसकी जिंदगी के दो छोर हैं जिनके बीच वह बार-बार झोंटे खाती रहती है।
यह उपन्यास रोचक होने के साथ-साथ एक विशेष मनोवैज्ञानिक परिस्थितियाँ पैदा करता है। जो यथार्थ के साथ-साथ विचित्र भी हो गई हैं। यहाँ है भैरप्पा की कल्पनामय यथार्थ शैली का अद्भुत चमत्कार!