डॉ० सिद्धार्थ
‘डॉ० सिद्धार्थ’ लेखिका का पहला उपन्यास है। उनकी दृढ मान्यता है कि जहाँ समाज में विडंबनाएं, विसंगतियां, अपराध, पीडा, विकृतियाँ और भोगवादी राक्षसी अपसंस्कृति है, वहीं डॉ० सिद्धार्थ जैसी निर्मापाधर्मा शक्तियां भी हैं। सच्चे, निर्मल और सात्यिक जीवन में बहुत आकर्षण है; किंतु उसे अंगीकार करने का मूल्य असाधारण है । अत: एक शाश्वत प्रश्न हमारे सामने है कि क्या कोई व्यक्ति धर्म की राह पर चलकर भी सामाजिक दृष्टि से सफल हो सकता है ?
शिष्या के रूप से दामिनी, अपने गुरु के स्नेह का सुख पाती हे। समय के साथ डॉ० सिद्धार्थ की बौद्धिकता, उसकी प्रतिभा को ही नहीं, उसकी आत्मा को भी सँवारती है । वह समझ पाती है कि चमक और दिव्यता में अंतर होता है । लौकिक सफलताओं की चमक हमारी आँखों को चौंधियाती है और आत्मिक विकास हमें दिव्यता से भर देता है। अध्यापक की बुद्धि से उच्च है उसका विवेक, और विवेक से उच्चतर है उसका आचरण । आचार्य वही है, जो आचरण को शुद्ध ही नहीं दिव्य भी कर दे । डॉ. सिद्धार्थ का चरित्र इन सिद्धांतों का मूर्तिमंत रूप है ।