पंडित सूर्यनारायण जी दीक्षित, एम. ए., अपने जीवन के प्रभात-काल में हिंदी के प्रेमी रहे हैं। कुमारी तेजरानी जी उनकी सुपुत्री हैं। कुमारी जी की प्रतिभा का फल-स्वरूप ‘हृदय का कांटा’ हमारे सामने प्रस्तुत है।
जहां तक हमें ज्ञात है कुमारी जी पहली स्त्री-रत्न हैं जिन्होंने राष्ट्रभाषा हिंदी में मौलिक उपन्यास लिखा है। आपसे हिंदी के पाठक एकदम अपरिचित नहीं हैं। समय-समय पर आपकी लिखी हुई कहानियां पाठकों के सामने आती रही हैं और पाठकों ने उनका आदर भी किया है। परंतु ‘हृदय का कांटा’ से कुमारी जी का स्थान साहित्य-जगत् से निश्चित और सुरक्षित हो जाता है।
‘हृदय का कांटा’ का प्लाट साधारण है। कई गार्हस्थ्य उपन्यासों से कथा मिलती-जुलती है। फिर भी हमें यह कहने में तनिक भी संकोच नहीं है कि उपन्यास मौलिक है। इस प्रकार के अन्य उपन्यासों से इसमें एक विशेषता यह है कि जहां और उपन्यास आदि से लेकर अंत तक भाव-प्रधान हैं, वहां प्रस्तुत उपन्यास की धरा भाव के भंवर से कर्म के समुद्र की ओर बहती है।
उपन्यास में सामाजिक कुरीतियों का प्रदर्शन भलीभांति किया गया है और यह दिखाने की चेष्टा की गई है कि गार्हस्थ्य जीवन की अनेक अशुभ घटनाओं का कारण सामाजिक कुरीतियां हैं।
‘प्रतिभा’ के चरित्र में अस्वाभाविकता की जरा सी झलक आ गई है। उसका कारण यह है कि कुमारी जी ने उपन्यास में हमारे सम्मुख स्त्री-जाति का आदर्श रखने का प्रयत्न किया है और इसी से स्त्री-जाति की अनेक मानवीय प्रवृत्तियों का दमन करना पड़ा है। परंतु जहां हम प्रतिभा के चरित्रा में कुछ अमानवीय देवीत्व पाते हैं, वहां ‘मालती’ और ‘महेश’ के संबंध का विकास और उसकी निस्सारता का चित्रण बहुत ही मर्मस्पर्शी, रोचक और स्वाभाविक है। कुमारी जी की प्रतिभा का वास्तविक परिचय हमें यहीं पर मिलता है।
उपन्यास मंजी हुई लेखनी का लिखा हुआ न होने पर भी हमें कुमारी जी की प्रतिभा तथा वेदनापूर्ण सहृदयता का पर्याप्त परिचय कराता है। हमारा विचार है कि किसी भी लेखक या लेखिका का पहले-पहल ऐसा उपन्यास लिखना उसके लिए गौरव की बात होगी।
हमें कुमारी जी से हिंदी साहित्य-सेवा की बहुत कुछ आशा है और विश्वास है कि आप निरंतर कुछ न कुछ लिखती रहेंगी।
—बंशीधर, एम. ए.
[सरस्वती (पत्रिका) : मार्च 1929 (फाल्गुन 1985), भाग 30, खंड 1, संख्या 3, पूर्ण संख्या 151, पृ. 346]