अश्विनीकुमार दुबे का उपन्यास ‘जाने-अनजाने दुःख’ एक मध्यवर्गीय परिवार के मुख्य चरित्र जगदीश प्रसाद तथा उनके परिवार की अंतर्कथा है। एक निम्न मध्यवर्गीय डाक कर्मचारी एवं कृषक के पुत्र जगदीश प्रसाद के जन्म, शिक्षा, शादी-ब्याह, कॉलेज शिक्षक से वाइस चांसलर बनने, इस बीच पुत्र-पुत्रियों के जन्म, उनके शादी-ब्याह और विकास के दौरान 70 वर्ष की अवस्था में उनके सेवानिवृत्त होकर अपने पुश्तैनी गांव पहुंचने की कथा को पूरी विश्वसनीयता एवं सशक्तता के साथ अश्विनीकुमार दुबे ने प्रस्तुत किया है।
अपनी जिन संबद्धताओं, आशाओं और सपनों के तहत जगदीश प्रसाद संघर्षरत होते हैं, उससे पाठकीय मन में प्रेरणाएं उत्पन्न होती हैं, जो इस उपन्यास की एक खास विशेषता है।
इस उपन्यास के माध्यम से अश्विनीकुमार दुबे ने जगदीश प्रसाद और उनकी पत्नी सुमन के चरित्र को आमने-सामने रखते हुए सुख-दुःख के प्रति उनकी अनुभूतियों की कलात्मक अभिव्यंजना की है। चूंकि जगदीश प्रसाद के विचार रचनात्मक थे जिसके तहत उनके कार्य और उनकी संबद्धताएं परिचालित थीं। ऐसे में जाने-अनजाने प्राप्त दुःखों को वे सहजता से झेल लेते। वे दुःख उन्हें अधिक विचलित और व्यथित नहीं करते, इसके विपरीत उनकी पत्नी सुमन के अरचनात्मक विचारों की वजह से जाने-अनजाने प्राप्त दुःख उसके लिए असह्य और बोझ होते चले गए। दरअसल जाने-अनजाने प्राप्त सुख-दुःख की अनुभूतियों का यह सार्वजनीन सच है, जिसे पूरी कलात्मकता के साथ इस उपन्यास में व्यक्त किया गया है।
इस उपन्यास में अश्विनीकुमार दुबे की भाषा की पठनीयता और किस्सागोई ने इसे महत्त्वपूर्ण बनाया है। विश्वास है, हिंदी जगत् में इसका स्वागत होगा।
—मिथिलेश्वर