कर्तार की टकसाल
”मैं क्या करूँ? अपने मन में उमड़ती भावनाओं को मैं रोक नहीं सकता। मैंने कैसे सपने सँजोए थे! उनके सच होने पर प्रसन्न भी था। जाति, मत, लिंग, उम्र की पाबंदी से परे, सर्व-समानता के स्वतंत्रा-विचारशील धर्म की बुनियाद पर पनपते समाज को देखने की इच्छा थी। मैंने सोचा था, इस मार्ग पर सफल हो रहा हूँ; पर जिस धरती पर था, वही टूट गई। मेरे सारे प्रयत्न विफल हो गए।“
कालिमरस ने कहा, ”यह भावना गलत है बसवण्णा, तुम्हारी कोशिश विफल नहीं हुई है। हमारे समाज के इस परिसर में कभी न साधित महान् सफलता इतनी कम अवधि में साधकर दिखाने में तुम समर्थ हुए हो।“
त्रिलोचन पंडित ने आगे कहा, ”खासकर उसमें भी अस्पृश्यता के विरुद्ध, वर्ण-व्यवस्था के विरुद्ध ऐसा प्रबल प्रतिरोध हमारे धार्मिक इतिहास में प्रथम है।“
निराशापूर्ण स्वर में बसवण्णा ने कहा, ”पर गुरुजी, अछूतपन अभी मिटा नहीं। वर्णों के लोहे का परकोटा चूर नहीं हुआ।“
”इस तरह निराश होने की आवश्यकता नहीं। धर्म सामूहिक शक्ति बनकर, साँस पाकर, सर्व-समानता को कृति में साधकर दिखाने का प्रबल हथियार कभी न बना था। इससे संप्रदाय की चट्टान पर प्रबल वार कर दिया गया है। बाहरी दृष्टि में वह अचल दीखता होगा, जीतने की तरह दीखता होगा; पर इसके अंतरंग में चैतन्य का संचार होने लगा है। देखना, भविष्य में एक महात्मा जन्म लेगा और इसे अपने हाथ में उठा लेगा।“
कालिमरस ने कहा, ”हाँ, तुमने जो किया, वह सिर्फ क्रांति ही नहीं। संप्रदाय के विरुद्ध खड़ा होना या उसे उखाड़ देना ही क्रांति होती है। उसके लिए सीमित दृष्टि काफी नहीं। पिछले को पचाकर, आज को जोतकर, आगे को बोना चाहिए। तुम ऐसे क्रांतदर्शी हो। महाप्रवादी हो। तुमने भविष्य की पीढ़ियों के लिए शाश्वत आदर्श आचरण कर दिखा दिया है। इसे विफल कैसे कहा जा सकता है?“
(इसी उपन्यास से)