मेरे साक्षात्कार: नागार्जुन
नागार्जुन से साक्षात्कार का मतलब है, एक युग से साक्षात्कार। निश्चय ही आसान कार्य नहीं है यह, एक निर्बंध और गतिमान व्यक्तित्व को सवालांे में बाँधने की कोशिश। लेकिन फिर भी यह कोशिश इस पुस्तक में जिस बड़ी हद तक सफल हुई है, उसका श्रेय इसमें शामिल साक्षात्कार लेने वालों को तो जाता ही है, इन्हें संकलित- संपादित कर पाठकों तक ले आने वाले श्री शोभाकांत को भी जाता है।
आकस्मिक नहीं कि इन साक्षात्कारों से गुजरते हुए हम बाबा नागार्जुन के अपने समूचे रचनाकर्म और उनके क्रांतिकारी रचनात्मक सरोकारों से परिचित होते हैं। एक रचनाकार को उसकी रचनाओं, आस्थाओं और जीवन- संघर्ष के संदर्भ में टटोलना उसे तो तरोताजा करता ही है, पाठकों को भी उसके साथ व्यापक, गहरा और अंतरंग रिश्ता बनाने का सुयोग प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त इस कार्य का एक और महत्त्वपूर्ण पक्ष है। वह यह कि
इन साक्षात्कारों से गुजरते हुए हम उन तमाम साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक मुद्दों के प्रति एक सकारात्मक नजरिया बना सकते हैं, जो भारतीय जन-मानस को जब-तब उद्वेलित किए रहते हैं।
बातचीत के दौरान ज्ञान-गरिष्ठ भाषा, शास्त्रोक्त पांडित्य और अपने लिए असुविधाजनक सवालों से दाएँ-बाएँ कतराकर निकल जाने की कला में बाबा का कोई विश्वास नहीं था। सच बोलने में वे कबीर की तरह औघड़ थे और निराला की तरह साहसी।
कहना न होगा कि यह किताब पाठकों को भी एक बड़े रचनाकार के रू-ब-रू खड़े होकर अनुभव-समृद्ध बनाती है।