सफेद परदे पर
उफ कैसे भंवर में आ फंसा हूँ मैं, अपनी ही करनी से ! किसने कहा था यह बखेडा मोल लेने को बहुत शौक चढा था ना अकेले रहने का? फँसावट नग रही थी बेटा-बहू की गिरस्ती और पोते की माया? अच्छा वानप्रस्थ है यह तुम्हारा, जिससे तुम्हें एक ओर दत्ता-दंपति का सहारा चाहिए और दूसरी ओर रामरतिया का । उधर बेटा-बहू परेशान, इधर बेटी अलग परेशान । क्या अधिकार था तुम्हें उन बेचारों को इस तरह सारी दुनिया के सामने अकारण अपराधी बना देने का?
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उन्हें पता भी नहीं चला, कब वह योगिनी महामाया अपनी जगह से उठकर उनके पास आकर खडी हो गई और उनके सिर को, सिर के बालों की जडों को हौले-हौले सहलाने लगी ।… उनकी आँखे पूरी तरह मुँद गई । एक अदभुत शीतल करेंट-सी उनके मस्तक को भेदकर बूँद-बूँद रिसती हुई पोर-पोर में पसर रही है… क्या वे सचमुच होश में है? हैं, तभी न ऐसे अनिर्वचनीय सुख का अनुभव कर रहे हैं, जैसा सुख उनकी स्नायुओं ने अब तक कभी नहीं जाना…
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तुमने कहा था आप क्यों पूछ रहे हैं बाबूजी? क्या मेरी कहानी की किताब लिखना चाहते हैं ? मैं बुरी तरह चौक गया था तुम्हारे मुँह से यह सुनकर । तुम्हें कैसे लगा रामरती, कि मैं तुम्हारी कहानी लिख सकता हूँ? पहली बार मुझे इलहाम जैसा हुआ कि हर आदमी की यह सबसे बड़ी, सबसे गहरी चाहत होती होगी कि कोई उसे सचमुच पूरा-पूरा समझे और न्याय करे ऐसा न्याय, जो और कोई नहीं कर सकता। सिर्फ लेखक नाम का प्राणी कर सकता है । लेखक, जो भगवान् की तरह लंबा इंतजार भी नहीं कराता । इसी जनम में, इसी शरीर और मन से निवास करने वाली जीवात्मा का एक्स-रे निकाल के रख सकता है ।
निरंग खली परदा । जुलूस क्व का बह गया । जुलूस देखती मुँदी आँखों को किसने बंद कपाटों की तरह खोल दिया ? यह किसकी आवाज है ? कौन मुझे पुकार रहा है ?
‘उठो भई, उठो । अभी तुम्हारा समय नहीं आया । अभी काफी कुछ कर्मभोग बाकी है तुम्हारा । माई सिर्फ मदद कर सकती है और वह मदद काफी नहीं है । तुम्हारी मुक्ति ऐसे नहीं होगी ।’
(इसी उपन्यास से)