शाम की झिलमिल
पत्नी को गुज़रे साल से ऊपर हो गया।
क्या मैं ऐसी ही खबरों को सुनने के लिए जीवित हूँ—फलाँ गया, वह भी गया। मृत्यु दूर कहीं एक मित्र या अपरिचित की होती है और निकाल लिया जाता है मेरे जीवन से एक कालखंड…जैसे शरीर से गोश्त का एक टुकड़ा। ये अगर इसी तरह निकाले जाते रहे तो मैं क्या बचूँगा…
तुम्हें जिजीविषा चाहिए, नए कालखंड निर्मित करो, नई कोशिकाएँ…
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खाक स्वतंत्रता जीने की चाह!
जैसे शाम दूर एक गाँव दिखता है—धूल से ढका, इधर- उधर उगते हुए दिये धूल को फाड़कर झिलमिल करते हुए रोशनी कहीं तेज, कहीं मद्धिम, कहीं बुझती हुई…कोई करीब आने का आभास कराती हुई तो कोई दूर जाने का, वहाँ तक जहाँ वह ओझल हो जाने को है…
(इसी उपन्यास से)
बुढ़ापे में अकेले हो जाने पर, फिर जी भर जी लेने की उद्दाम इच्छा, उसे साकार करने के प्रयत्न, एक-पर-एक
…कुछ हास्यास्पद, कुछ गंभीर, कुछ बेहद गंभीर कि जीवन इहलोक और परलोक में इस पार से उस पार बार-बार बह जाता हो….कोई सीमारेखा नहीं। हताशा, जीने की मजबूरी, कुछ नया लाने की कोशिश…दरम्यान उठते जीवन सम्बन्ध मूलभूत प्रश्न
गोविन्द मिश्र का यह बारहवाँ उपन्यास वृद्धावस्था के अकेलेपन और जिजीविषा के द्वन्द और टकराहट पर लिखा गया संभवतः हिंदी का पहला उपन्यास है।