सुलगती ईंटों का धुआं कहानीकार पूनम सिंह का नया संग्रह है। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित इन कहानियों को पर्याप्त लोकप्रियता प्राप्त हो चुकी है। पूनम सिंह नए बनते समाज को आलोचनात्मक दृष्टि के साथ कहानियों के केंद्र में रखती हैं, यह एक सामान्य कथन है। यह उपयुक्त कथन है कि वे भाषा और शैली से पाठक के मन में भी खुशी और खलिश पैदा कर देती हैं। विकास के नाम पर लुटती जमीन, परंपरा और अस्मिता विमर्श से जूझती स्त्री, जिम्मेदारियों से घिरा ‘नैतिक बेरोजगार, ग्रहों के अंधविश्वास में उलझे आधुनिक, उत्पीड़न के विरुद्ध उठ खड़ी हुईं स्त्रियां, अकेलेपन से आक्रांत व आत्मीयता को तलाशती वृद्धावस्था और व्यवस्था के खिलाफ एकजुट जनता-इन कहानियों के यही सूत्र-संदर्भ हैं। देखा जाए तो रचनाशीलता को चारों तरफ से घेरे इन सूत्र-संदर्भों को पूनम सिंह ने अपने रचाव से विशेष बना दिया है। उनमें स्थानीयता का एक मोहक अंदाज है। यह अंदाज केवल भाषा में ही नहीं, कहानी कहने के मिजाज में भी समाया है। इन कहानियों के कई चरित्र मन में कहानी समाप्त हो जाने के बाद भी उद्धिग्न रहते हैं। कहानी पाठक के मन में दुबारा-तिबारा लिखी जाती है शायद।
पूनम सिंह पर किसी अतिरिक्त “रचनात्मक नुमाइश’ का जुनून नहीं है। वे बड़ी सहजता से परिवार, परिवेश व प्रयास की कहानियां लिखती हैं। इस सहजता को ऐसे शब्द मार्मिकता देते हैं, ‘समय की भट्ठी में कच्ची मिट्टी की छोटी-बड़ी गढ़ी-अनगढ़ी कई मूर्तियां भी एक साथ पकती रहती हैं। हिंसक समय के हाथ थक जाएंगे, उन्हें तोड़ते, ध्वस्त करते।
एक ऐसा कहानी संग्रह जो समाज के श्वेत-श्याम चेहरे की शिनाख्त करता है।