“स्वणपाश ‘ नृत्य और अभिनय से आजीविका-स्तर तक संबद्ध माँ-बाप की संतान गुलनाज़ फूरीबा के मानसिक विदलन और अनोखे सृजनात्मक विकास व उपलब्धियों की कथा है। समकालीन सनसनियों में से एक से शुरू हुई यह कथा हमें एक बालिका, एक किशोरी और एक युवती के उस आदिम अरण्य में ले जाती है जहाँ “नर्म’ और “गर्म” डिल्युजंस और हेल्युसिनेशंस का वास्तविक मायालोक है। मायालोक और वास्तविक? जी हाँ, वास्तविक क्योंकि स्वप्न-दुःस्वप्न जिस पर बीतते हैं उसके लिए कुछ भी “वर्चुअल ‘ नहीं-न सुकून, न सितम। उस पीड़ा की सिर्फ कल्पना की जा सकती है कि खुली दुनिया में जीती-जागती काया की चेतना एक अमोघ पाश में आबद्ध हो जाए और अधिकांश अपने किसी सपने के पीछे भागते नज़र आएँ। पाश में बँधे व्यक्ति की मुक्ति तब तक संभव नहीं होती जब तक कोई और आकर खोल न दे। मगर जब एक सम-अनुभूति-संपन्न खोलने वाले की तलाश त्रासद हो तो? दोतरफा यातना से गुजरने के बाद अगर कोई मिले और वह भी हौले-हौले एक नए पाश में बँध चले तो? अनोखे रोमांसों से भरी इस कथा में एक नए तरह की रोमांचकता है जो एक ही बैठक में पढ़ जाने के लिए बाध्य कर देती है।
गुलनाज़ एक चित्रकार है और वह भी “प्राडिजी ‘। ऐसे चरित्र का बाहरी और भीतरी संसार कला की चेतना और आलोचनात्मक समझ के बगैर नहीं रचा जा सकता था। कथा में पेंटिंग की दुनिया के प्रासंगिक नमूने और ज्ञात-अल्पज्ञात नाम ऐसे आते हैं गोया वे रचनाकार के पुराने पड़ोसी हों। आश्चर्य तो तब होता है जब हम नायिका की सृजन-प्रविधि और उसकी पेंटिंग्स के चमत्कृत (कभी-कभी आतंकित) कर देने वाले विवरण से गुज़रते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मनीषा कुलबश्रेष्ठ मूलतः चित्रकार हैं। उनकी रचनात्मक शोधपरकता का आलम यह है कि वे इसी क्रम में यह वैज्ञानिक तथ्य भी संप्रेषित कर जाती हैं कि स्किज़ोफ्रेनिया किसी को ग्रस्त भर करता है, उसे एक व्यक्ति के रूप में पूरी तरह खारिज नहीं करता।
स्किज़ोफ्रेनिया पर केंद्रित यह उपन्यास ऐसे समय में आया है जब वेश्वीकरण की अदम्यता और अपरिहार्यता के नगाड़े बज रहे हें। स्थापित तथ्य है कि वैश्वीकरण अपने दो अनिवार्य घटकों-शहरीकरण और विस्थापन- के द्वारा पारिवारिक ढाँचे को ध्वस्त करता हे। मनोचिकित्सकीय शोधों के अनुसार शहरीकरण स्किज़ोफ्रेनिया के होने की दर को बढ़ाता है और पारिवारिक ढाँचे में टूट रोग से मुक्ति में बाधा पहुँचाती है। ध्यातव्य है कि गुलनाज़ पिछले ढाई दशकों में बने ग्लोबल गाँव की बेटी है। अस्तु, इस कथा को एक गंभीर चेतावनी की तरह भी पढ़े जाने की आवश्यकता है। आधुनिक जीवन, कला और मनोविज्ञान-मनोचिकित्सा की बारीकियों को सहजता से चित्रित करती समर्थ और प्रवहमान भाषा में लिखा यह उपन्यास बाध्यकारी विखंडनों से ग्रस्त समय में हर सजग पाठक के लिए एक अनिवार्य पाठ है।
-डॉ. विनय कुमार