वृन्दा
“मैं वृन्दा के बिना अपने होने की कल्पना भी नहीं करता । अब कैसे जिऊँगा और क्यों जिऊँगा ? अब मुझे भी कोई रोक नहीं सकता—पर हाँ वृन्दा, जाने से पहले तुमसे एक बात पूछना चाहता हूँ–काना चाहता हूँ… ” शास्त्री जी कुछ संभलकर खडे हो गए ।
सब उत्सुकता से उनकी और देखने लगे ।
वृन्दा की ओर देखकर शास्त्री जी बोले–“मुझे जीवन के अंतिम क्षण तक एक दु:ख कचोटता रहेगा कि तुमने ‘गीता’ पढी तो सही, पर केवल शब्द ही पढे तुम ‘गीता’ को जीवन में जी न सकी । तुम हमेँ छोड़कर जा रही हो, यह आघात तो है ही; पर उससे भी बड़ा आघात मेरे लिए यह है कि मेरी वृन्दा ‘गीता’ पढ़ने का ढ़ोंग करती रही । जब युद्ध का सामना हुआ तो टिक न सकी । मुझें दु:ख है कि तुमने ‘गीता’ पढ़कर भी न पढी। वृन्दा ! ‘गीता’ सुनकर तो अर्जुन ने गांडीव उठा लिया था और तुम हमें छोड़कर, उस विद्यालय के उन नन्हे-मुन्ने बच्चों को छोड़कर यों भाग रहीं हो मुझे तुम पर इतना प्रबल विश्वास था । आज सारा चकनाचूर हो गया । ठीक है, तुम जाओ… जहाँ भी रहो, सुखी रहो… सोच लूँगा, एक सपना था जो टूट गया ।”
(इसी उपन्यास से)